Monday 12 March 2007

दिल्ली चिट्ठाकार सम्मेलन पर समापन रपट

रविवार, 11 मार्च, 2007 को नई दिल्ली के कनाट प्लेस में हुई हिन्दी चिट्ठाकारों की बैठक कई मायनों में पिछली बैठकों एवं आपसी मुलाकातों से अलग और खास रही। बैठक में प्रतिभागी रहे अन्य सभी साथी इस बैठक की रपट पहले ही अपने-अपने चिट्ठों पर रोचक और विशिष्ट अंदाज में सचित्र प्रस्तुत कर चुके हैं, जिनकी कड़ियाँ यहाँ एक साथ संकलित हैं:

  • नोटपैड

दिल्ली के ब्लागर्स कैफ़े कॉफ़ी डे में

  • नीलिमा (लिंकित मन)

दिल्ली ब्लॉगर सभा: एक गैरपुरुष नजरिया

  • अमित गुप्ता (दुनिया मेरी नज़र से)

6 घंटे चली दिल्ली की हिन्दी ब्लॉगर भेंटवार्ता

  • जगदीश भाटिया (आईना)

चिट्ठाकार मिलन: कन्फ्यूजन, कॉफी और कोमलता का एहसास

  • मसिजीवी

दिल्ली की मीट यानी हरी घास में दम भर

  • अमिताभ त्रिपाठी (लोकमंच)

चिट्ठाकार मिलन: एक नई पहल

  • अविनाश (मोहल्ला)

दिल्ली ब्लॉगर्स मीट: एक रपट चंद बातें

शायद इस बात से हिन्दी चिट्ठा जगत के पहले चिट्ठाकार दंपति अनूप एवं रजनी भार्गव को विशेष खुशी होगी कि उनकी परंपरा में धीरे-धीरे अब कई दंपति संयुक्त रूप से चिट्ठाकारी की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं। अविनाश के साथ उनकी धर्मपत्नी मुक्ता जी भी हमारे साथ बैठक में शामिल हुईं थीं, इसलिए अविनाश की रपट में उनके स्वर को भी फिलहाल शामिल मान लेते हैं। आशा है, जब वह अपना चिट्ठा शुरू करेंगी तो अपनी नई भूमिका में पहली पोस्ट इसी बैठक से जुड़ी बातों के संबंध में लिखेंगी। मुक्ता जी के बारे में नीलिमा जी का यह सूक्ष्म पर्यवेक्षण देखिए:

मुक्ता जी की घास नोचते हुए लगातार की चुप्पी रहस्यमयी थी । सुना है वे भी जल्दी ही ब्लॉग बनाने जा रहीं हैं अब पता नहीं कल की चर्चा से उनके इरादों पर क्या असर हुआ लेकिन मुझे उन्हें देखकर प्रसाद की लाइनें याद आती रहीं ----

मैं रोकर सिसककर सिसककर कहता करुण कहानी

तुम सुमन नोचते सुनते करते जानी अनजानी

बैठक में शामिल अलग-अलग नज़रिये से लिखी रपट तो आप पढ़ ही चुके हैं। यदि नहीं तो जरा गौर फ़रमाइए :

मसिजीवी - हमें मुफ्त में कैफे की शक्‍कर तक मिले, ये तक नीलिमा से बर्दाश्‍त नहीं

नीलिमा - वैसे एक बडा ही खास मुद्दा बीच बीच में लगातार उठा वह यह कि चिट्ठाकार अपनी पत्नियों के कैसे-कैसे और कितने कोप के भाजन बनते हैं और कैसे मैनेज करते हैं। मसिजीवी इस मसले पर सबसे ज्यादा रुचि लेते प्रतीत हुए । स्त्री चिट्ठाकारों के घरेलू हालातों पर चिंता वहां नदारद थी।

एक अन्य नए चिट्ठाकार साथी भूपेन भी हमारे साथ थे, जो बैठक में सबसे कम समय के लिए शामिल रह पाए और शायद इसीलिए उन्हें इसके बारे में अपने चिट्ठे पर कुछ लिख सकने लायक नहीं लगा। लेकिन इसी महिने ही चिट्ठाकारी से जुड़ी हिन्दी में डाक्टरेट नोटपैड ने इस शिकायत का मौका नहीं दिया। वह बकायदा अपना नोटपैड और कैमरा साथ लाई थीं और सबके ई-मेल और मोबाइल नंबर के साथ-साथ कुछ न कुछ महत्वपूर्ण बातें नोट भी कर रही थीं। उनके कैमरे और नोटपैड में क्या दर्ज हुआ, उसका कुछ हिस्सा तो आप उनकी पोस्ट में देख ही चुके हैं और जो हिस्सा वह अभी छिपा गई हैं, शायद उसे आगे कभी अभिव्यक्त करेंगी।

खेद ज्ञापन

बैठक के लिए सही समय पर पहुंचकर भी मैथिली जी को वापस लौट जाना पड़ा, यह बात मुझे अभी तक कचोट रही है। उन्हें सबसे पहले और विशेष तौर पर बैठक में आमंत्रित किया गया था और अपने वायदे के मुताबिक वे पहुँचे भी, मगर .....। मैथिली जी, मुझे माफ़ करेंगे, आपको मेरे कारण एक बार फिर तकलीफ हुई। मैथिली जी की तरह अमित भी बैठक के निर्धारित स्थल पर तय समय से कुछ पहले ही पहुंच चुके थे, लेकिन वे दोनों संभवतया एक-दूसरे से या तो मिल नहीं पाए या एक-दूसरे को पहचान नहीं पाए। बैठक के सिलसिले में मैथिली जी से मेरा संपर्क ई-मेल से ही हुआ था और उनका मोबाइल नंबर भी अब मेरे पास सुरक्षित नहीं है। इसलिए कल जरूरत पड़ने पर मैं उनसे मोबाइल पर संपर्क भी नहीं कर सका। जगदीश जी के पास उनका मोबाइल नंबर था, लेकिन जब बैठक में पहुँचने के बाद उन्होंने मैथिली जी से संपर्क किया तब तक वह लौटकर काफी दूर जा चुके थे। मेरा मोबाइल नंबर भी केवल जगदीश जी के पास था। कुछ अन्य साथियों के पास मेरा लैंडलाइन नंबर था। इसलिए घर से निकलने से पहले मैंने श्रीमती जी को कह रखा था कि यदि कोई चिट्ठाकार के रूप में अपना परिचय देते हुए घर के नंबर पर फोन करे तो उनको मेरा मोबाइल का नंबर दे देना। अमिताभ जी ने आखिरकार इसी रूट का इस्तेमाल करके मुझसे संपर्क किया।

एक और बात, जो मेरे लिए अत्यंत खेदजनक है कि छ: घंटे तक चली इस मैराथन बैठक के दौरान कुछ साथी लंच से वंचित रह गए। मैंने हालांकि लंच का प्रस्ताव किया था, लेकिन चर्चा में अधिकतर साथियों का मन इस तरह से रमा हुआ था कि भूख से ध्यान हट चुका था। हमने कॉफी और मिल्क शेक से काम चला लिया। जगदीशजी, अमित और मेरे लिए तो यह कुछ-कुछ डायटिंग जैसा ही मामला हो गया, लेकिन दुबले-पतले अमिताभ जी के पेट में चूहों ने खलबली जरूर मचा दी।

कंफ्यूजन और इंतजार

बैठक से एक दिन पहले मैंने पहले से परिचित चिट्ठाकार साथियों को इस बैठक का प्रस्ताव ई-मेल से भेजा था, जिसमें उनसे बैठक के समय और स्थल के बारे में सुझाव भी देने का अनुरोध किया था। जगदीश जी ने फोन करके सुझाव दिया कि बैठक कनाट प्लेस के सेंट्रल पार्क में की जाए। इस पार्क को दिल्ली मेट्रो रेल निगम ने हाल ही में नए सिरे से सजा-संवार कर आम जनता के लिए खोला है और दिल्ली के युवा युगलों के लिए आजकल यह सबसे हॉट स्पॉट है। वास्तव में, दिल्ली में इस तरह की बैठक के लिए सेंट्रल पार्क हर लिहाज से अत्यंत उपयुक्त स्थल है। लेकिन इसमें एक परेशानी थी, कई चिट्ठाकारों को न तो हम पहले से पहचानते थे और न ही उनका कोई फोटो देख रखा था। उनके फोन नंबर आदि भी हमलोगों के पास नहीं थे। इसलिए हमें ऐसी किसी स्थल का चुनाव करना था, जहाँ हम सभी एकत्र हो सकें। इस मामले में सबसे अधिक अनुभवी हमारे सबसे युवा साथी अमित थे, सो हमने उनकी सलाह को ही अंतिम माना। वह अंग्रेजी ब्लॉगर्स के साथ इस तरह की बैठकें अक्सर करते रहते हैं। उनके सुझाव पर क़ैफे क़ॉफी डे में बैठक रखने का तय किया गया। लेकिन यह मुझे क्या, शायद उनको भी अंदाज नहीं रहा होगा कि कनाट प्लेस में कैफ़े कॉफ़ी डे के तीन-तीन स्टोर होने के कारण, चिट्ठाकारों को सही स्थल तक पहुँचने में कंफ्यूजन का शिकार होना पड़ सकता है। बहरहाल, जैसा कि आप जान ही चुके हैं कि अमित निर्दिष्ट कैफ़े में काफी देर तक इंतजार करते रहे और मन ही मन हमें कोसते रहे और उधर चंद कदमों दूर दूसरे कैफ़े में महफिल पूरे रंग में जम चुकी थी।

समय की पाबंदी के महत्व को समझने के बावजूद मैं निर्धारित समय से आधे घंटे देर से बैठक में पहुंच पाया। बैठक के संयोजक की जो भूमिका बिना किसी के सौंपे मैंने स्वीकार कर ली थी, उसे निभाने के लिए मेरा समय पर पहुंचना लाजिमी था। हालांकि जहाँ चार चिट्ठाकार पहले से जमा हो चुके हों, बैठक की शुरुआत करने के लिए किसी संयोजक की मौजूदगी जरूरी नहीं रह जाती है। मसिजीवी, नीलिमा, नोटपैड और अमिताभ त्रिपाठी गलत पते और सही वक्त पर पहुंच चुके थे और अनौपचारिकबातचीत में मशगूल हो चुके थे। लेकिन औपचारिक रूप से बैठक के संचालन हेतु संयोजक का मौजूद न होना स्वाभाविक रूप से उन्हें अधीर कर रहा था। इस अधीरता को मैं अमिताभ जी के संक्षिप्त फोन कॉल पर सुनाई दे गई प्रतिक्रिया में भी महसूस कर चुका था। लेकिन मसिजीवी जी की टिप्पणी में छिपे चुटीले व्यंग्य के स्वर ने भविष्य के लिए मुझे सचेत रहने हेतु प्रेरित किया :

पहला बदलाव तो यह था कि मेजबान नदारद थे, और जिनके जैसे तैसे पहुँच जाने भर की उम्‍मीद थी वे बैठे हर मेज पर जाकर कुरेद-कुरेदकर पूछ रहे थे कि भाईसाहब क्‍या आप वो हिंदी ब्‍लॉगर....., फिर हमारा साक्षात्‍कार एक आपत्तिसूचक नकार से होता था। हमें लगा कि ये ब्‍लॉगर मीटिंग कहीं ब्‍लॉगर डेंटिंग में न बदल जाए (जी साहब ब्‍लॉग शोधार्थी थीं ही वहाँ) पर खैर होनी को कौन टाल सकता है। धीरे धीरे ये लोग पहुँच गए....

ऑटो चालक ने मुझे कनाट प्लेस के इनर सर्किल में जिस जगह छोड़ा, वहाँ से गोल-गोल घूमते हुए और सही पता पूछते हुए उस गलत पते तक पहुंचने में दस-बारह मिनट लग गए। सुबह ही मेरे एकलौते साले साहब पधारे थे और आप तो जानते ही हैं कि सारी खुदाई एक तरफ और .......। घर से निकलते-निकलते मुझे अचानक सूझा कि दो-तीन मिनट में ई-मेल भी चेक कर ही लें ताकि पता चल सके कि आखिरकार कौन-कौन साथी आ रहे हैं और कौन नहीं आ पा रहे हैं। मसिजीवी जी ने आने की पुष्टि की थी। नीरज दीवान जी ने ऑफिस में फंसे होने की वजह से आने में असमर्थता जाहिर की थी। मेल चेक करते समय चैट बॉक्स में घुघुतीबासूती जी का संदेश दिखाई दिया, वे पूछ रही थीं कि मीटिंग की तैयारी चल रही है क्या? मेरे पास उनका उत्तर तक देने का समय नहीं था, मेल भी खड़े-खड़े चेक कर रहा था। लंदन से एक वरिष्ठ पत्रकार साथी की मेल थी जो अपने नये चिट्ठे का हिन्दी चिट्ठा जगत से परिचय करा देने के लिए कह रहे थे। (मैंने इसकी सूचना बैठक में उपस्थित साथियों के अलावा चिट्ठाकार समूह और परिचर्चा पर आज दे दी है और उसे नारद से जोड़ा भी जा चुका है।) प्रत्यक्षा जी की तरफ से ई-मेल का कोई प्रत्युत्तर नहीं आया था। अनूप जी ने उनका मोबाइल नंबर भेजा था, लेकिन उस वक्त फोन करने का कोई मतलब नहीं था। आज जब प्रत्यक्षा जी का मेल मिला तो पता चला कि वे सप्ताहांत में अपने कंप्यूटर को भी विश्राम दे रही थीं और कोई मेल ही चेक नहीं किया था।

कैफ़े के ठीक बाहर लंबे अरसे बाद जेएनयू के एक पुराने सहपाठी और अब पत्रकार मित्र मिल गए, मुझे उसमें भी एक भावी चिट्ठाकार नजर आया और मैं उसे इस बात के लिए राज़ी करने में जुट गया कि वह भी पत्रकारों में आजकल तेजी से पनप रहे चिट्ठाकारी के विषाणु से स्वैच्छिक रूप से संक्रमित होने के लिए हमारी बैठक में शिरकत करे। लेकिन शायद वह किसी ख़ास ख़बर की टोह में कनाट प्लेस आया था, तो उस वक्त भला उसे चिट्ठाकारों से क्या सरोकार हो सकता था! बहरहाल, हम जब उस कैफ़े में पहुंचे जहाँ पहुँचना नहीं चाहिए था, तो एक कोने में बैठे दो महिला और दो पुरुष चिट्ठाकार जैसे प्रतीत हुए।


क्या कोई सुनियोजित एजेंडा था
?

कल की इस बैठक का आयोजन बगैर किसी पूर्वयोजना के किया गया था और ऐसा कोई सुनियोजित एजेंडा इसके पीछे नहीं था, जैसा कि कुछ साथियों को शायद महसूस हुआ। किन्तु मेरे मन में इतना अवश्य था कि जब इतने सारे चिट्ठाकार एक साथ मिल रहे हैं तो क्यों न इस अवसर का लाभ उठाते हुए हिन्दी चिट्ठा जगत में इस समय उठ रहे मसलों और चिन्ताओं पर भी कुछ उपयोगी विमर्श कर लिया जाए। फिर भी, मैंने इस बात का भरसक ध्यान रखने की कोशिश की कि अनौपचारिक चर्चा और आत्मीय मेल-मिलाप का मुख्य उद्देश्य बाधित न हो पाए। जब तक आवश्यक महसूस नहीं हुआ, मैंने बातचीत के सहज प्रवाह में हस्तक्षेप करने की कोशिश नहीं की। फिर भी, कुछ बातें ऐसी हैं जिसे इस बैठक की उपलब्धियों में गिनाया जा सकता है। ये बातें महत्वपूर्ण किंतु कुछ गंभीर किस्म की हैं, जिन पर मैं अपने निजी चिट्ठे पर शीघ्र ही चर्चा करूंगा।


यदि हम साथियों पर अपनी गृह मंत्रियों के बारंबार आ रही फोन कॉलों का दबाव नहीं रहा होता तो शायद बैठक छ: घंटे से भी आगे जारी रहती। कैफ़े कॉफ़ी डे में दो-ढाई घंटा बिताने के बाद हमलोग सेंट्रल पार्क में एक-डेढ़ घंटा बैठे, उसके बाद केवेन्टर्स में मिल्क शेक पीने गए। वहाँ भी खड़े-खड़े आधे घंटे से अधिक चर्चा जारी रही। उसके बाद कुछ साथी तो चले गए, लेकिन अमिताभ, जगदीशजी, अमित और मैं चर्चा जारी रखते हुए लौटकर फिर सेंट्रल पार्क की घास पर आ बैठे। यहाँ तक कि जब वापस अपने-अपने घरों के लिए निकलने के लिए उठे तो पता नहीं किस के सवाल पर नेताजी सुभाष संबंधी मेरे लेखों पर बात चल निकली और फिर हम खड़े-खड़े आधे घंटे से भी ज्यादा बातें करते रह गए। नेताजी के बारे में अमिताभ जी का कौतूहल इतना बढ़ चुका था कि वह मुझे खोद-खोदकर पूछने लगे और तब तक मेरे साथ उस विषय में बातें करते रहे जब तक कि मैं दिल्ली परिवहन निगम द्वारा नई चलाई गई अत्याधुनिक बस में सवार नहीं हो गया।

इस सम्मेलन की अन्यत्र चर्चा:

चिट्ठाकार मिलन: कन्फ़्यूजन, कॉफ़ी और....गर्रर..

चिट्ठाकार मिलन एक नई पहल

पिछले दिल्ली चिट्ठाकार सम्मेलन (6 अगस्त, 2006) की रपट

हिन्दी चिट्ठाकारी के नए दौर का आग़ाज़

11 comments:

Udan Tashtari said...

बढ़िया रही आपकी समापन रिपोर्ट भी. बहुत खूब. बधाई इस आयोजन और रिपोर्ट के लिये. :)

ePandit said...

आपकी पोस्ट से ब्लॉगर मीट के नतीजों पर कुछ रोशनी तो पड़ी। इस बैठक से कुछ नहीं तो आगे के लिए नींव तो बनी। बाकी आपकी पोस्ट का इंतजार है।

SHASHI SINGH said...

ये हुई न बात!!! सृजन भाई आपका ये व्यवस्थित अंदाज... कभी-कभी न जलन होती है कि हम क्यों नहीं हो पाते इतने व्यव्स्थित? कोई बात नहीं सतरंगी दुनिया में मुझ जैसों की भी खपत है।

Pramendra Pratap Singh said...

सभी लेखों को एक जगह सयोंजन करके अच्‍छा किया बधाई

Pratyaksha said...

बढिया समापन रपट । इस बार छूट गये , अगली बार शिरकत करेंगे ।

Jagdish Bhatia said...

बहुत ही सधी हुई और रोचक रिपोर्ट।

Jitendra Chaudhary said...

बहुत अच्छी रिपोर्ट। जो गम्भीर बाते हुई उनके बारे मे जानने की उत्सुकता है।

अच्छा लगा। इस तरह से सभी पुरानी ब्लॉगर सम्मेलन की रिपोर्ट यदि यहाँ(पुरानी तारीख मे ही) पब्लिश कर दी जाए तो बहुत अच्छा रहेगा। जिस भाई को भी इस ग्रुप ब्लॉग मे शामिल होना चाहते है, मुझे या सृजनशिल्पी को लिखे।

अफ़लातून said...

आप शायद पेशेवर तौर पर रपट लिखने की आदी हों लेकिन मैं आप में एक अच्छे संगठनकर्ता द्वारा जैसी रपट लिखी जाती है,वह देख रहा हूँ ।

ghughutibasuti said...

धन्यवाद सृजन जी । आपको बधाई । हो सकता है कि यह प्रक्रिया वातावरण को साफ करने में काम आई हो , किन्तु मैं कहाँ खड़ी हूँ, अभी भी समझ नहीं आया । अभी तक यही समझ नहीं आया कि मैं बीच में कहाँ से आ गई ? जब तक यही समझ नहीं आयेगा तो मैं अपने में, अपने व्यवहार या चिट्ठे में सुधार कैसे लाऊँगी ? मुझे किसी से शिकायत नहीं हूँ केवल किन्कर्त्तव्य विमूढ़ हूँ । सो जब तक यह सब साफ नहीं हो जाता आत्म चिन्तन चलता रहेगा ।
आशा करती हूँ कि आप लोग ऐसे ही मिलते रहेंगे व सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाए रखेंगे । इस सबका यदि कुछ भी अच्छा परिणाम निकला है, तो जो कुछ हुआ वह व्यर्थ न गया ।
But the fact remains, I still do not know what hit me and why .
घुघूती बासूती

Unknown said...

खूब, इस रिपोर्ट ने बाकी रिपोर्टों की पूरक बनते हुए वे बातें बताईं जो अन्य रिपोर्टों में छूट गईं(या छोड़ दी गईं)। :)

मसिजीवी said...
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